हिंदी,
अब क्या कहूँ, कैसे कहूँ,
और बिन कहे भी कैसे रहूँ?
इसलिए सुनो।
पराई भाषाओँ की चंचल, चपल, मोहक ठिठोलियॉँ,
मेरे मन को बंधक बना गईं,
उनपर आसक्त मन मेरा, भागा उनके पीछे,
उनकी उथली खनकती मादक बातें,
मेरे भोले मन को बहला गयीं,
एक अर्थहीन भावनाविहीन अंधसागर के तलहट में सुला गईं।।
जब तक आँखेँ खुलीं,
मन के तार पड़ गए थे शाँत।
तब तुम याद आईं और
हिंदी में ही निकली,
क्लांत मन से आह।।
हिंदी,
तुम मेरे भीतर हो समाई,
बोलो भला, तुम बिन मैं कैसे रहूँ?
– शेफाली